जुलाई 21, 2012

मुखौटा



राह चलते लोग
अक्सर खो देते हैं
अपनी आंखों की रोशनी
नज़रों के आगे होती है
उनकी मंज़िल
और मंज़िल की साधना में
वे अर्जुन होते हैं।
उन्हें दिखती है
चिड़िया की बाईं आंख
और बाकी चीज़ें धुंधली हो जाती हैं।

राह चलते लोग
मोह-माया से निर्लिप्त होते हैं
उन्हें नज़र नहीं आते
लड़कियों के फटते कपड़े
उन्हें नहीं दिखते
मचलते मसलते हाथ
दीन दुनिया से बेखबर होते हैं
राह चलते लोग।

एसी कमरों में
टीवी देखते लोगों की
असंख्य आंखें होती हैं
उनका मन कराहता है
सड़कों पर उतरती इज्ज़त से।
उनके हाथों में
सुबह का अखबार,
चाय की प्याली होती है
और दिल में सुलगती हुई आह
कब बदलेगा हमारा देश!”
कब होगी नारियों की इज्ज़त!”

एसी कमरों में
टीवी देखते लोग
दुनिया की परवाह करते हैं।
वे उफनते हैं
देश के बिगड़ते हालात पर।
दुर्योधनों की दरिंदगी पर
उनका खून खौलता है।

टीवी देखते लोग
कभी सड़कों पर नहीं उतरते
सड़कों पर चलते है
बस अर्जुन के मुखौटे
अर्जुन को दिखती है
चिड़िया की बाईं आंख
और चीरहरण के समय
वे अंधे हो जाते हैं।


जुलाई 03, 2012

शोर



हल्के सिंदूरी आसमान में
उनींदा सा सूरज
जब पहली अंगड़ाई लेता है,
मेरी खिड़की के छज्जे पर
मैना का एक जोड़ा
अपने तीखे प्रेमालाप से
मेरे सपनों को झिंझोड़ डालता है।
गुस्से से भुनभुनाते होंठ
आंखें खुलते ही न जाने क्यों 
टू फॉर ज्वॉय बोल जाते हैं।

मंद हवाओं की ताल पर
झरने का बेलौस संगीत
भोर का एकांत बिखेर देता है।
बर्फीले पानी में
नंगे बच्चों की छपाक-छई से
पसीज गए हैं मेरी आंखों में
कुछ ठिठुरे हुए लम्हे।
छलकते पानी के साथ
हवाओं में बिखर गई है
कुछ मासूम खिलखिलाहटें।
मन करता है
अंजुरी अंजुरी उलीच लाउं
फिर उसी झरने से
कुछ खोई हुई खिलखिलाहटें।

चाय की फैक्ट्री में ठीक आठ बजे उठता अलार्म
कच्चे घरों में हलचल मचा देता है।
चाय में रात की रोटी भिगोती अधीर उंगलियां
एक और लंबे दिन के लिए तैयार हैं।
वफादारी दिखाने को व्यग्र कुत्ता
चरमराते पत्तों की आवाज़ पर भी भौंकता है
नए नए पैरों से लड़खड़ाते हुए दौड़ता बछड़ा
रंभाती मां की आवाज़ सुन
चुपचाप उसके जीभ तले गर्दन रख देता है।
बिन बुलाए मेहमान सा
कभी भी बरस पड़ता
मेघ का टुकड़ा
टीन के छप्पर पर कितना शोर मचाता है।
आज भी कानों में
इस कदर गूंजता है वह शोर
कि भीड़ भरे शहर का सन्नाटा
अब चिढ़ाता है मुझे।